अनुभव के ऊपर कबीर के दोहे – kabir ke dohe

अनुभव के ऊपर कबीर के दोहे (kabir ke dohe for Experience in hindi)

कागत लिखै सो कागदी, को व्यहाारि जीव

आतम द्रिष्टि कहां लिखै , जित देखो तित पीव।


अर्थ- कागज में लिखा शास्त्रों की बात महज दस्तावेज है । वह जीव का व्यवहारिक अनुभव नही है । आत्म दृष्टि से प्राप्त व्यक्तिगत अनुभव कहीं लिखा नहीं रहता है । हम तो जहाॅ भी देखते है अपने प्यारे परमात्मा को ही पाते हैं।


निरजानी सो कहिये का, कहत कबीर लजाय

अंधे आगे नाचते, कला अकारथ जाये।


अर्थ- अज्ञानी नासमझ से क्या कहा जाये। कबीर को कहते लाज लग रही है। अंधे के सामने नाच दिखाने से उसकी कला भी व्यर्थ हो जाती है। अज्ञानी के समक्ष आत्मा परमात्मा की बात करना व्यर्थ है ।


ज्ञानी युक्ति सुनाईया, को सुनि करै विचार

सूरदास की स्त्री, का पर करै सिंगार।


अर्थ- एक ज्ञानी व्यक्ति जो परामर्श तरीका बतावें उस पर सुन कर विचार करना चाहिये। परंतु एक अंधे व्यक्ति की पत्नी किस के लिये सज धज श्रृंगार करेगी।


बूझ सरीखी बात हैं, कहाॅ सरीखी नाहि

जेते ज्ञानी देखिये, तेते संसै माहि।


अर्थ- परमांत्मा की बातें समझने की चीज है। यह कहने के लायक नहीं है। जितने बुद्धिमान ज्ञानी हैं वे सभी अत्यंत भ्रम में है।


लिखा लिखि की है नाहि, देखा देखी बात

दुलहा दुलहिन मिलि गये, फीकी परी बरात।


अर्थ- परमात्मा के अनुभव की बातें लिखने से नहीं चलेगा। यह देखने और अनुभव करने की बात है। जब दुल्हा और दुल्हिन मिल गये तो बारात में कोई आकर्षण नहीं रह जाता है।


भीतर तो भेदा नहीं, बाहिर कथै अनेक

जो पाई भीतर लखि परै, भीतर बाहर एक।


अर्थ- हृदय में परमात्मा एक हैलेकिन बाहर लोग अनेक कहते है। यदि हृदय के अंदर परमात्मा का दर्शण को जाये तो वे बाहर भीतर सब जगह एक ही हो जाते है।


ज्ञानी तो निर्भय भया, मानै नहीं संक

इन्द्रिन केरे बसि परा, भुगते नरक निशंक।


अर्थ- ज्ञानी हमेशा निर्भय रहता है। कारण उसके मन में प्रभु के लिये कोई शंका नहीं होता। लेकिन यदि वह इंद्रियों के वश में पड़ कर बिषय भोग में पर जाता है तो उसे निश्चय ही नरक भोगना पड़ता है।


आतम अनुभव जब भयो, तब नहि हर्श विशाद

चितरा दीप सम ह्बै रहै, तजि करि बाद-विवाद।


अर्थ- जब हृदय में परमात्मा की अनुभुति होती है तो सारे सुख दुख का भेद मिट जाता है। वह किसी चित्र के दीपक की लौ की तरह स्थिर हो जाती है और उसके सारे मतांतर समाप्त हो जाते है।


आतम अनुभव ज्ञान की, जो कोई पुछै बात

सो गूंगा गुड़ खाये के, कहे कौन मुुख स्वाद।


अर्थ- परमात्मा के ज्ञान का आत्मा में अनुभव के बारे में यदि कोई पूछता है तो इसे बतलाना कठिन है। एक गूंगा आदमी गुड़ खांडसारी खाने के बाद उसके स्वाद को कैसे बता सकता है।


ज्यों गूंगा के सैन को, गूंगा ही पहिचान

त्यों ज्ञानी के सुख को, ज्ञानी हबै सो जान।


अर्थ- गूंगे लोगों के इशारे को एक गूंगा ही समझ सकता है। इसी तरह एक आत्म ज्ञानी के आनंद को एक आत्म ज्ञानी ही जान सकता है।


वचन वेद अनुभव युगति आनन्द की परछाहि

बोध रुप पुरुष अखंडित, कहबै मैं कुछ नाहि।


अर्थ- वेदों के वचन,अनुभव,युक्तियाॅं आदि परमात्मा के प्राप्ति के आनंद की परछाई मात्र है। ज्ञाप स्वरुप एकात्म आदि पुरुष परमात्मा के बारे में मैं कुछ भी नहीं बताने के लायक हूँ।


अंधो का हाथी सही, हाथ टटोल-टटोल

आंखों से नहीं देखिया, ताते विन-विन बोल।


अर्थ- वस्तुतः यह अंधों का हाथी है जो अंधेरे में अपने हाथों से टटोल कर उसे देख रहा है । वह अपने आॅखों से उसे नहीं देख रहा है और उसके बारे में अलग अलग बातें कह रहा है । अज्ञानी लोग ईश्वर का सम्पुर्ण वर्णन करने में सझम नहीं है ।


अंधे मिलि हाथी छुवा, अपने अपने ज्ञान

अपनी अपनी सब कहै, किस को दीजय कान।


अर्थ- अनेक अंधों ने हाथी को छू कर देखा और अपने अपने अनुभव का बखान किया। सब अपनी अपनी बातें कहने लगें-अब किसकी बात का विश्वास किया जाये।

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