छिन ही चढ़े छिन उतरे, सो तो प्रेम न होय (अर्थ)

छिन ही चढ़े छिन उतरे, सो तो प्रेम न होय ।

अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहाबै सो ।।

अर्थ: जो प्रेम क्षण-क्षण में घटता तथा बढ़ता रहता है वह प्रेम नहीं है । प्रेम तो वह है जो हमेशा एक सा रहे । भगवान का प्रेम अघट प्रेम है जो मनुष्य की सम्पूर्ण इंद्रियों से प्रदर्शित होता रहता है ।

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