वीरता के ऊपर कबीर के दोहे – kabir ke dohe

वीरता के ऊपर कबीर के दोहे (kabir ke dohe for Valor in hindi)

सिर राखे सिर जात है, सिर कटाये सिर होये

जैसे बाती दीप की कटि उजियारा होये।

अर्थ- सिर अंहकार का प्रतीक है। सिर बचाने से सिर चला जाता है-परमात्मा दूर हो जाता हैं। सिर कटाने से सिर हो। जाता है। प्रभु मिल जाते हैं जैसे दीपक की बत्ती का सिर काटने से प्रकाश बढ़ जाता है।


साधु सब ही सूरमा, अपनी अपनी ठौर

जिन ये पांचो चुरीया, सो माथे का मौर।

अर्थ- सभी संत वीर हैं-अपनी-अपनी जगह में वे श्रेष्ठ हैं। जिन्होंने काम,क्रोध,लोभ,मोह एंव भय को जीत लिया है वे संतों में सचमुच महान हैं।


सूरा के मैदान मे, कायर का क्या काम

सूरा सो सूरा मिलै तब पूरा संग्राम।

अर्थ- वीरों के युद्ध क्षेत्र में कायरों का क्या काम। जब वीर का मिलन होता है तो संग्राम पूरा होता है। जब एक साधक को ज्ञानी गुरु मिलते हैं तभी पूर्ण विजय मिलती है।


सूरा सोई जानिये, पांव ना पीछे पेख

आगे चलि पीछा फिरै, ताका मुख नहि देख।

अर्थ- साधना के राह में वह व्यक्ति सूरवीर है जो अपना कदम पीछे नहीं लौटाता है। जो इस राह में आगे चल कर पीछे मुड़ जाता है उसे कभी भी नहीं देखना चाहिये।


आगि आंच सहना सुगम, सुगम खडग की धार

नेह निबाहन ऐक रस महा कठिन व्यवहार।

अर्थ- आग की लपट सहना और तलवार की धार की मार सहना सरल है किंतु प्रेम रस का निवहि अत्यंत कठिन व्यवहार है।


सूरा सोई जानिये, लड़ा पांच के संग

हरि नाम राता रहै, चढ़े सबाया रंग।

अर्थ- सूरवीर उसे जानो जो पाँच बिषय-विकारों के साथ लड़ता है। वह सर्वदा हरि के नाम में निमग्न रहता है और प्रभु की भक्ति में पूरी तरह रंग गया है।


आ प स्वार्थी मेदनी, भक्ति स्वार्थी दास

कबिरा नाम स्वार्थी, डारी तन की आस।

अर्थ- पृथ्वी जल के लिये इच्छा-स्वार्थ कड़ती है और भक्ति प्रभु के लिये आत्म समर्पण चाहती है। कबीर शरीर के लिये समस्त आशाओं को त्याग कर प्रभु नामक सूमिरण हेतु इच्छा रखते हैं।


उँचा तरुवर गगन फल, पंछी मुआ झुर

बहुत सयाने पचि गये, फल निरमल पैय दूर।

अर्थ- वृक्ष बहुत उँचा है और फल आसमान में लगा है-पक्षी बिना खाये मर गई। अनेक समझदार और चतुर व्यक्ति भी उस निर्मल पवित्र फल को खाये बिना मर गये। प्रभु की। भक्ति कठिन साधना के बिना संभव नहीं है।


हरि का गुन अति कठिन है, उँचा बहुत अकथ्थ

सिर काटि पगतर धरै, तब जा पहुँचैय हथ्थ।

अर्थ- प्रभु के गुण दुर्लभ,कठिन, अवर्णनीय और अनंत हैं। जो सम्पूर्ण आत्म त्याग कर प्रभु के पैर पर समर्पण करेगा वही प्रभु के निकट जाकर उनके गुणों को समझ सकता है।


अब तो जूझै ही बनै, मुरि चलै घर दूर

सिर सहिब को सौपते, सोंच ना किजैये सूर।

अर्थ- अब तो प्रभु प्राप्ति के युद्ध में जूझना ही उचित होगामुड़ कर जाने से घर बहुत दूर है। तुम अपने सिर-सर्वस्व का त्याग प्रभु को समर्पित करो। एक वीर का यही कत्र्तव्य है।


लालच के ऊपर कबीर के दोहे (kabir ke dohe for greed in hindi)

कबीर औधि खोपड़ी, कबहुँ धापै नाहि

तीन लोक की सम्पदा, का आबै घर माहि।

अर्थ- कबीर के अनुसार लोगों की उल्टी खोपड़ी धन से कभी संतुष्ट नहीं होती तथा हमेशा सोचती है कि तीनों। लोकों की संमति कब उनके घर आ जायेगी।


जब मन लागा लोभ से, गया विषय मे भोय

कहै। कबीर विचारि के, केहि प्रकार धन होय।

अर्थ- जब लोगों का मन लोभी हो जाता है तो उसका मन बिषय भोग में रत हो जाता है और वह सब भूल जाता है। और इसी चिंता में लगा रहता है कि किस प्रकार धन प्राप्त हो।


बहत जतन करि कीजिये, सब फल जाय

नशाय कबीर संचय सूम धन, अंत चोर ले जाय।

अर्थ- अनेक प्रयत्न से लोग धन जमा करते है पर वह सब अंत में नाश हो जाता है। कबीर का मत है कि कंजूस व्यक्ति धन बहुत जमा करता है पर अंततः सभी चोर ले जाता है।


ज्ञानी

छारि अठारह नाव पढ़ि छाव पढ़ी खोया मूल

कबीर मूल जाने बिना,ज्यों पंछी चनदूल।

अर्थ- जिसने चार वेद अठारह पुरान,नौ व्याकरण और छह धर्म शास्त्र पढ़ा हो उसने मूल तत्व खो दिया है। कबीर मतानुसार बिना मूल तत्व जाने वह केवल चण्डूल पक्षी की तरह मीठे मीठे बोलना जानता है।


कबीर पढ़ना दूर करु, अति पढ़ना संसार

पीर ना उपजय जीव की, क्यों पाबै निरधार।

अर्थ- कबीर अधिक पढ़ना छोड़ देने कहते हैं। अधिक पढ़ना सांसारिक लोगों का काम है। जब तक जीवों के प्रति हृदय में करुणा नहीं उत्पन्न होता, निराधार प्रभु की प्राप्ति नहीं होगी।


ज्ञानी ज्ञाता बहु मिले, पंडित कवि अनेक

हरि रटा निद्री जिता, कोटि मध्य ऐक।

अर्थ- ज्ञानी और ज्ञाता बहुतों मिले। पंडित और कवि भी अनेक मिले। किंतु हरि का प्रेमी और इन्द्रियजीत करोड़ों मे भी एक ही मिलते हैं।


 पंडित पढ़ते वेद को, पुस्तक हस्ति लाद

भक्ति ना जाने हरि की, सबे परीक्षा बाद।

अर्थ- पंडित वेदों को पढ़ते है। हाथी पर लादने लायक ढेर सारी पुस्तकें पढ़ जाते हैं। किंतु यदि वे हरि की भक्ति नहीं जानते हैं तो उनका पढ़ना व्यर्थ है और उनकी परीक्षा बेकार चली जाती है।


पढ़त गुनत रोगी भया, बढ़ा बहुत अभिमान

भीतर तप जु जगत का, घड़ी ना परती सान।

अर्थ- पढ़ते विचारते लोग रोगी हो जाते है। मन में अभिमान भी बहुत बढ़ जाता है। किंतु मन के भीतर सांसारिक बिषयों का ताप एक क्षण को भी शांति नहीं देता।


पढ़ि पढ़ि और समुझाबै, खोजि ना आप शरीर

आपहि संसय मे परे, यूँ कहि दास कबीर।

अर्थ- पढ़ते-पढ़ते और समझाते भी लोग अपने शरीर को मन को नहीं जान पाता हैं। वे स्वयं भ्रम में पड़े रहते हैं। अधिक पढ़ना व्यर्थ है। अपने अन्तरात्मा को पहचाने।


पढ़ि गुणि ब्राहमन भये, किरती भई संसार

बस्तु की तो समझ नहीं, ज्यों खर चंदन भार।

अर्थ- पढ़ लिख कर ब्राहमण हो गये और संसार में उसकी कीर्ति भी हो गई किंतु उसे वास्तविकता और सरलता की समझ नहीं हो सकी जैसे गधा को चंदन का महत्व नहीं। मालूम रहता है। पढ़ना और गदहे पर चंदन का बोझ लादने के समान है।


ब्राहमिन गुरु है जगत का, संतन का गुरु नाहि

अरुझि परुझि के मरि गये, चारों वेदो माहि।

अर्थ- ब्राहमण दुनिया का गुरु हो सकता है पर संतो का गुरु नहीं हो सकता ब्राहमण चारों वेदों में उलझ-पुलझ कर मर जाता हैं पर उन्हें परमात्मा के सत्य ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो पाती है।


चतुराई पोपट पढ़ी, परि सो पिंजर माहि

फिर परमोधे और को, आपन समुझेये नाहि।

अर्थ- चालाकी और चतुराई व्यर्थ है। जिस प्रकार तोता पढकर भी पिंजड़े में बंद रहता है। पढाक पढता भी है और उपदेश भी करता है परंतु स्वयं कुछ भी नहीं समझता।


कबीर पढना दूर करु, पोथी देह बहाइ

बाबन अक्षर सोधि के, हरि नाम लौ लाइ।

अर्थ- कबीर का मत है कि पढ़ना छोड़कर पुस्तकों को पानी मे प्रवाहित कर दो। बावन अक्षरों का शोधन करके केवल हरि पर लौ लगाओ और परमात्मा पर ही ध्यान केंद्रित करों।


कलि का ब्राहमिन मसखरा ताहि ना दीजय दान

कुटुम्ब सहित नरकै चला, साथ लिया यजमान।

अर्थ- कलियुग का ब्राहमण जोकर सदश्य है। उसे कोई दान-दक्षिणा मत दें। वह स्वयं तो अपने परिवार के साथ नरक जायेगा ही अपने यजमान को भी साथ नरक लेता जायेगा-क्योकि वह पाखंडी होता है।


पढ़ि पढ़ि जो पत्थर भया, लिखि लिखि भया जु चोर

जिस पढ़ने साहिब मिले, सो पढ़ना कछु और।

अर्थ- आदमी पढ़ते-पढ़ते पथ्थर जैसा जड़ और लिखतेलिखते चोर हो गया है। जिस पढ़ाई से प्रभु का दर्शन सम्भव होता है-वह पढ़ाई कुछ भिन्न प्रकार का है। हमें सत्संग ज्ञान की पढ़ाई पढ़नी चाहिये।


ब्राहमन से गदहा भला, आन देब ते कुत्ता

मुलना से मुर्गा भला, सहर जगाबे सुत्ता।

अर्थ- ब्राम्हण से गधा अच्छा है जो परिश्रम से घास चरता है। पथ्थर के देवता से कुत्ता अच्छा है जो घर का पहरा देकर रक्षा करता है। एक मौलवी से मुर्गा अच्छा है जो सोये शहर को जगाता है।


हरि गुन गाबै हरशि के, हृदय कपट ना जाय

आपन तो समुझय नहीं, औरहि ज्ञान सुनाय।

अर्थ- अपने हृदय के छल कपट को नहीं जान पाते हैं। खुद तो कुछ भी नहीं समझ पाते है परन्तु दूसरों के समक्ष अपना ज्ञान बघारते है।


पढ़ि पढ़ाबै कछु नहीं, ब्राहमन भक्ति ना जान

व्याहै श्राधै कारनै, बैठा सुन्दा तान।

अर्थ- ब्राहमण पढ़ते पढ़ाते कुछ भी नहीं हैं और भक्ति के विषय में कुछ नहीं जानते हैं पर शादी व्याह या श्राद्धकर्म कराने में लोभ वश मुँह फाड़ कर बैठे रहते हैं।


पढ़ि गुणि पाठक भये, समुझाये संसार

आपन तो समुझे नहीं, बृथा गया अवतार।

अर्थ- पढ़ते और विचारते विद्वान तो हो गये तथा संपूर्णसंसार को समझाने लगे किंतु स्वयं को कुछ भी समझ नहीं आया और उनका जन्म व्यर्थ चला गया।


कबीर ब्राहमन की कथा, सो चोरन की नाव

सब मिलि बैठिया, भावै तहं ले जाइ।

अर्थ- कबीर के अनुसार अविवेकी ब्राम्हण की कथा चोरों की नाव की भांति है। पता नहीं अधर्म और भ्रम उन्हें कहाँ ले जायेगा?


नहि कागद नहि लेखनी, नहि अक्षर है सोय

बाांचहि पुस्तक छोरिके, पंडित कहिय सोय।

अर्थ- बिना कागज,कलम या अक्षर ज्ञान के पुस्तक छोड़कर जो संत आत्म-चिंतन और मनन करता है उसे हीं पंडित कहना उचित है।


पढ़ते गुनते जनम गया, आशा लगि हेत

बोया बिजहि कुमति ने, गया जु निरमल खेत।

अर्थ- पढ़ते विचारते जन्म बीत गया किंतु संसारिक आसक्ति लगी रही। प्रारम्भ से कुमति के बीजारोपण ने मनुष्य शरीर रुपी निर्मल खेत को भी बेकार कर दिया।


पढ़ना लिखना चातुरी, यह तो काम सहल्ल

काम दहन मन बसिकरन गगन चढ़न मुस्कल्ल।

अर्थ- पढ़ना लिखना चतुराई का आसान काम है किंतु इच्छाओं और वासना का दमन और मन का नियंत्रण आकाश पर चढ़ने की भांति कठिन है।


पढे गुणै सिखै सुनै, मिटी ना संसै सूल

कहै कबीर कासो कहूँ, ये ही दुख का मूल।

अर्थ- सुनने,चिंतन,सीखने और पढ़ने से मन का भ्रम नहीं मिटा। कबीर किस से कहें कि समस्त दुखों का मूल कारण यही है।

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